जन, भूमि और संस्कृति राष्ट्र का आधार हैं,
पर जन का निरंतर बढ़ते जाना, राष्ट्र को भी अस्वीकार है..
नागरिक सीमित और स्वस्थ्य
रूप में राष्ट्र को समृद्ध बनाते हैं..
वहीं निरंतर बढ़ते- बढ़ते भीड़ का रूप बन जाती हैं..
यह भीड़ लक्ष्यहीन, उद्देश्यहीन होकर भी हक जताती है,
सीमित साधनों का अपव्यय कर राष्ट्र को पीछे और पीछे ले जाती है..
जाति, संप्रदाय धर्म और परिजन छोड़ दें अगर जिद ,
तो जनसंख्या नियंत्रण के लक्ष्य मे भारत भी हो जाए विजित..
अगर संख्या ही जीत का आधार होती तो पांच पांडवों के आगे सौ कौरव की हार ना होती..
स्वयं भारत ने युद्ध,शांति ,परिणाम को प्रत्यक्ष कर दिखाया है,
संख्या की जगह ईश्वर को
योग्यता के पक्ष में खड़ा पाया है
फिर भी नागरिक भीड़ को रोक नहीं क्यों पाया है?
रोक नहीं क्यों पाया है ?